कबीर का संस्कृत चिंतन

Authors

  • विजय पाटिल

Abstract

कबीर ने केवल जाति ही नहीं मूर्ति पूजा के विरुद्ध भी साहित्य में अपनी बात को प्रमुखता से दर्शाया हैं।हिंदू मुस्लिम के उन संस्कारों और रीति रिवाज प्रथाओं की भरसक आलोचना की जो उनकी दृष्टि में व्यर्थ थे। उनका मानना था कि ईश्वर को प्राप्त करना हो तो मन में सच्ची श्रद्धा भक्ति के भाव होना चाहिए। संत कबीर दास का जन्म पंद्रहवीं शताब्दी में काशी उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनके जीवन के बारे में विस्तृत विवरण निश्चित नहीं है। कबीर के शिक्षण और तत्व ज्ञान में सूफी प्रभाव स्पष्ट झलकता है। उनके काव्य में हिंदी खड़ी बोली पंजाबी, भोजपुरी, उर्दू, फारसी, मारवाड़ी, भाषण का मिश्रण है। उनके अनुयायियों का सबसे बड़ा समूह कबीर पंथ के लोग हैं जो उन्हें मोक्ष और मार्गदर्शन करने वाला गुरु मानते हैं। कबीर पंथ कोई अलग धर्म नहीं बल्कि आध्यात्मिक दर्शन है। कबीर भारतीय मनीषा के प्रथम विद्रोही संत है। उनका विद्रोह अंधविश्वास और अंधश्रद्धा के विरोध में सदैव मुखर रहा है। उनके समय में समाज में पाखंड जात-पात छुआछूत, अंधश्रदा से भरे कर्मकांड सांप्रदायिक, उन्माद चरम सीमा पर था ।जनमानस धर्म के नाम पर दिग्भर्मित हो रहा था। मध्यकाल को कबीर की चेतना का प्रकट काल माना जाता है। उसी काल में अंधविश्वास के मुंहासो को चीरकर कबीर रूपी दहकते सूर्य का प्राकट्य भारतीय क्षितिज में हुआ।
बीज शब्द- संस्कृति, अध्यात्म, सहिष्णुता, अनीश्वरवाद, एकेश्वरवाद।

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Published

01-02-2024

How to Cite

1.
विजय पाटिल. कबीर का संस्कृत चिंतन. IJARMS [Internet]. 2024 Feb. 1 [cited 2024 Dec. 21];7:100-2. Available from: https://journal.ijarms.org/index.php/ijarms/article/view/580