कबीर दास का शिल्प चिंतन
Abstract
कबीर उस हिन्दी-संस्कृति के सदस्य हैं जो नकार, विरोध के साथ अशिक्षित जनों की भाषा के बीच अपना साहित्यक इतिहास बनाती है। आठवीं शताब्दी में मूर्ति, मंदिर, शास्त्र, संस्कृति, मठ, छत्र, मुकुट, माला और तिलक, शिक्षा और यज्ञोपवीत, जाति, वर्ण को अस्वीकार करने वाली सिद्धधर्या विकसित हुई। कला की चरम परिणति का नाम अभिव्यंजना है। अभिव्यंजना ही कला की अस्मिता है। अभिव्यंजित कला ही शाश्वतता को अधिगत करती है, यही कला लोक की प्रेरिका-पथप्रदर्शिका भी बनती है। कबीर कोई कलाबाज (चमत्कारी कवि-कलाकार) नहीं थे, प्रदर्शन न तो उन्हें प्रिय था और न वे समाज के लिए ही उसे मंगलकारी मानते थे। इसलिए उन्होंने अपनी सहज साधु बानी में अपने अन्तस् के सहज-सरल उद्गारों को बिना किसी बनाव ठनाव के कह दिया है। तथापि इस सहजता की स्थिति में भी लय है और गहन प्रभावमयता भी। चूंकि कबीर का काव्य ईश्वराधन था, उनका काव्य व्यक्ति व्यक्ति के भेद की निर्मूलित करके प्रेमाधारित समाज की रचना था, इसलिए उन्होंने अपने भावोद्गारों को व्यक्त किया। कबीर की साधना नितान्त एकान्तिक आत्मनिष्ठ नहीं थी, वह समाजोन्मुखी थी, सम्प्रेषणोन्मुखी थी। कबीर की वानियों का उद्देश्य सम्प्रेषण था। सम्प्रेषण इसलिए, क्योंकि वह अपने उपदेश को जनसामान्य तक पहुंचाना चाहते थे।
कीवर्ड- कबीर, भाषा, काव्य शिल्प, शब्दावली।
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