कबीर का समाज चिन्तन

Authors

  • डॉ. राजेश कुमार वर्मा

Abstract

साहित्य और समाज का मानव जीवन के साथ गहन सम्बन्ध है क्योंकि मानव के सोच-विचार, क्रियाकलाप उसकी चिन्तन शीलता आदि सभी समाज से जुड़ी होती है और समाज की सभी घटनाओ के साहित्यकार अपने साहित्य के माध्यम से व्यक्त करता है। साहित्यकार की कोई भी घटना अपनी घटना नहीं होती हैं, अपितु उस घटना का संबंध समाज से ही होता है। समाज से अलग साहित्यकार का अस्तित्व अन्धकारमय होगा। इसलिए साहित्यकार जीवन के प्रत्येक कदम पर समाज से प्रभावित होता चलता है। सन्त कबीरदास का काव्य भी समाज से निरपेक्ष नहीं है, अपितु उनकी कविता समाज सापेक्ष है। समाज में हो रहे विभिन्न परिवर्तनों ने उनके साहित्य को भी प्रभावित किया है। सन्त कबीर ने समाज की बुराइ्रयों को अपनी आँखों से ही नहीं देखा था, अपितु सहन भी किया था। उस युग का सामाजिक वातावार दूषित था। सम्पूर्ण समाज विभिन्न वर्गों में विभक्त था तथा लगभग सभी वर्गों के लोगो का नैतिक दृष्टि से पतन हो चुका था। समाज में सभ्य कहा जाने वाला वर्ग निरन्तर स्वार्थी होता जा रहा था। सभी काजी, मौलवी व पंडित समाज को विभिन्न भ्रमों में डालकर लूट रहे थे। नारी जो समाज में उच्च स्थान की अधिकारी नही रही है, वह केवल काम वासना और भोग की वस्तु बन गयी थी। जिससे समाज मे जहाँ एक ओर पर्दा-प्रथा, अनमेल-विवाह, बहु-विवाह जैसी बुराईयाँ फैल रही थी वहीं दूसरी तरफ चोरी, बेइमानी, झूठ धोखा और हिंसात्मक प्रवृृतियाँ भी जोर पकड़ रही थी। सन्त कवि कबीर दास सामाजिक बुराइयों को युगदृष्टा की परखी नजर से निहार रहे थे। उनके सामने व्यक्ति का पतन हो रहा था। धार्मिक कट्टरता के कारण हिन्दू धर्म और मुसलमानों में परस्पर वैमनस्य की भावना दृढ होती जा रही थी। हिन्दुओं को जहां एक ओर अपने धर्म में आस्था थी वही मुसलमानों को मुस्लिम धर्म में पूर्ण विश्वास और श्रद्धा थी वे दोनो अपने-अपने धर्म का प्रचार प्रसार करने के उद्धेश्य हेतु अनेकों बुराइयों से लिप्त हो गये। साधारण व्यक्ति अपने चारो ओर के इस अन्धकारमय वातावरण से दुखी व पीडित था। ऐसी भंयकर समाजिक स्थिति को देखकर समाज-सुधारक कवि कबीरदास जी निरचिंतित होकर नहीं बैठ सकते थे। उनका मन इन सभी सामाजिक विषमताओं से आहत हो उठा। जिसके विरोध में उन्होंने सामाजिक सुधार का नारा बुलन्द किया। उन्होंने समाज में व्याप्त अनेक प्रकार के आचरिक और मानसिक विकारों को निर्मूल करके आदर्श समाज और आदर्श मानव की संकल्पना की। अपनी इसी कामना की पूर्ति के लिए उन्होंने सामाजिक विसंगतियों पर बडेतीव्र और तीखे प्रहार किए। वस्तुतः सन्त कबीर की सामाजिक दृष्टि को निम्नशीर्षकों में आगे विभाजित किया गया हैं।

बीज शब्दः-साहित्य, समाज, धर्म, जाति, संस्कृति, अन्धविश्वास, मान्यता, आदर्श, साधना।

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Published

01-02-2024

How to Cite

1.
डॉ. राजेश कुमार वर्मा. कबीर का समाज चिन्तन. IJARMS [Internet]. 2024 Feb. 1 [cited 2024 Nov. 21];7:133-7. Available from: https://journal.ijarms.org/index.php/ijarms/article/view/593