हिन्दी साहित्य में कबीर का हिन्दू- मुस्लिम समाज के समन्वय का स्वरूप

Authors

  • प्रो. कांती शर्मा

Abstract

कबीर के सोचने का एक अनूठा तरीका था। उन्होंने आजादी की आखिरी बूंद तक पिया। कबीरदास ऐसे कवि थे जो संत, भक्त समाज सुधारक और फकीर थे. जिनकें जैसा आज तक न कोई हुआ और ना ही शायद होगा। कबीर के समय समाज में हिंदु पर मुस्लिम आतंक फैला हुआ था उन्होंने ऐसा मार्ग अपनाया जिससे समाज में फैली बुराईयों को दूर किया जा सके। कबीर कालीन समाज की दशा अन्यन्त सोचनीय थी । सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था, जातिगत अत्याचार - आचार विचार, वंशगत ऐश्वर्यमद एवं उंच-नीच की भावना पर आधारित थी। कबीर यह देखकर अत्यन्त क्षुब्ध थे कि धर्म के नाम पर पूरा समाज पाखण्ड और बाहरी आचार से ग्रस्त थे। योगी योग में ध्यान लगाकर उन्मुक्त थे, पण्डितों को पुराण का अहंकार था, तपस्वी तम के अहंकार में ढूबे थे, मुल्ला को कुरान पढ़ने का शौक था और काजी को न्याय करने का गर्व था। वस्तुतः सभी मोह ग्रस्त थे और सन्मार्ग से भटक गये थे। सारा समाज मिथ्या प्रपंच में अनुरक्त था। इस प्रकार सामाजिक वैषम्य का कबीर ने घोर विरोध किया। कबीर ने जिस समाज को देखा वह अहंकार, अज्ञान, आत्मप्रदर्शन अंधश्रद्धा पाखण्ड, धूर्तता आदि में आकण्ठ मग्न था। सारा वातावरण दम छोटू था, माननीय चेतना का जीवन्त पक्ष लुप्त हो चुका था। अतः कबीर ने इस जर्जर व्यवस्था पर निर्ममतापूर्वक प्रहार करते हुए मानवीय मूल्यों पर खरी उतरने वाली सर्वकालिक तथा सार्वभौमिक शिक्षा दी। उन्होंने इस जड़ता को नकारते हुए आडम्बरहीन समाज रचना का प्रयास किया। उनमें जो खण्डनात्मक वृत्ति मिलती है, उसके लिए तत्कालीन परिस्थितियां ही उत्तरदायी है। उन्हें लगा कि कथनी और करनी में यह वैषम्य समाज को रसातल लिए जाता है।
बीज शब्द- अद्वैत-दर्शन, निर्गुणवाद, सगुणवाद, एकेश्वरवाद, साम्प्रदायिकता, ब्रह्म।

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Published

01-02-2024

How to Cite

1.
प्रो. कांती शर्मा. हिन्दी साहित्य में कबीर का हिन्दू- मुस्लिम समाज के समन्वय का स्वरूप. IJARMS [Internet]. 2024 Feb. 1 [cited 2024 Nov. 21];7:157-62. Available from: https://journal.ijarms.org/index.php/ijarms/article/view/597