मै कहता हौं आंखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी

Authors

  • डॉ चन्दन कुमार

Abstract

आज जब धर्म आधारित चुनावी राजनीति में सांप्रदायिकता की आंधी चल रही है, धर्म का नाम लेकर हिंदू- मुसलमानों में घृणा, द्वेष और उन्माद का घोर प्रचार प्रसार किया जा रहा है।। आए दिन दलितो, स्त्रीयों, आदिवासियों, विकलांगो के साथ भेदभाव और दोयम दर्जे का व्यवहार जारी है। पाखण्ड, अन्धविश्वास, मूर्तिपूजा, मंदिर, मस्जिद, बाहयाडंबरों के जाल में नेता, मोलवी, बाबा जनता को फंसाये रखने के यत्न कर रहे हैं ऐसे अंधेरे कठिन और संकट के दौर में कबीर अपनी बानियों से हमें प्रकाश की राह दिखाते हैं। कबीर ने विभिन्न धर्मों, संप्रदायों, जातियों, वर्णों को नकार कर ऐसे समाज की स्थापना का प्रयास किया जिसमें धर्म संप्रदाय, ऊँच-नीच के भेद्भाव के लिए कोई स्थान नहीं है। उनके समाज में न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान - सब मनुष्य है, कोई किसी से छोटा बड़ा नहीं है। पीड़ित, शोषित, अपमानित जन और समाज के दुखों से कबीर का गहरा सरोकार है। कबीर वेद - पुराण, कुरान जैसे शास्त्र और शास्त्रीय ज्ञान को नहीं मानते ऐसा ज्ञान जो आत्म ज्ञान, अनुभव जन्य ज्ञान को कुंठित करता हो।
बाहयाचारों, बाह्याडंबरो, पाखण्डों और ढकोसलों पर व्यंग्यपरक चकनाचूर करने वाली भाषा अन्य कवियों, संतो, योगियों से कहीं अधिक कबीर की बानियों में धार पाती है। कबीर की व्यंगात्मक सरल अर्थपूर्ण भाषा भी उन्हें और उनकी कविताई को लोकप्रिय, देशज, सार्थक, साहित्यिक और आधुनिक बनाती है। अनुभूति की सच्चाई और अभिव्यक्ति की ईमानदारी कबीर की सबसे बड़ी विशेषता है। वे जो कुछ कहते थे अनुभव के आधार पर कहते थे, इसीलिए उनकी उक्तियाँ बेधनेवाली और व्यंग्य चोट करने वाले होते थे। कबीर अपने युग को देखनेवाले कालजीवी कवि हैं और इसीलिए कालजयी भी है। उनकी कविताओं में अभिव्यक्त चिंताएँ और चिंतन आज भी जारी है। आधुनिक भारतीय साहित्य में कबीर तत्व अनेक रूपों में विद्यमान है। उनकी बानियों की संगीतमय प्रस्तुति जागरण गीतों की तरह जन-मन में बसी हुई है। उनकी कविताएँ युगीन विसंगतियों , विद्रूपताओ , विकृतियों को पहचानने की आधुनिक साहित्यकारों को जीवन दृष्टि देती है।
बीजशब्द- भूमंडलीकरण, पुरोहितवाद, कठमुल्लापन, सामंतवाद, वर्गवाद, वर्ण व्यवस्था, कालजीवी।

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Published

01-03-2024

How to Cite

1.
डॉ चन्दन कुमार. मै कहता हौं आंखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी. IJARMS [Internet]. 2024 Mar. 1 [cited 2024 Dec. 3];7:168-74. Available from: https://journal.ijarms.org/index.php/ijarms/article/view/600