भूमंडलीकरण के युग में गांधी के सर्वाेदय सिद्धांत की प्रासंगिकता
Abstract
मानवीय सभ्यता के उदय से ही न्याय समानता और सामाजिक न्याय को स्थापित करने के लिए मनुष्य निरंतर प्रयत्नशील रहा है। इसके लिए हमेशा संघर्ष करता रहा है। लेकिन कुछ प्रभुत्वशाली और शोषक वर्ग के द्वारा इसमें हमेशा व्यवधान पैदा किए जाते रहे। जिससे उनके प्रभुत्व हमेशा बने रहें। उनके विशेषाधिकार हमेशा कायम रहे। लेकिन ज्ञान, विज्ञान और पुर्नजागरणों के कारण मनुष्यों में जैसे-जैसे राजनीतिक चेतना बढ़ती गई, वैसे-वैसे सामान्य से सामान्य मनुष्य भी अपने हक और अधिकार के लिए उठ खड़ा हुआ। जिससे हर व्यक्ति को समान स्वतंत्रता और जीवन में आगे बढ़ाने के समान अवसर प्राप्त हो सके।
भूमंडलीकरण ने मनुष्य की समक्ष अनेक व्यापारिक गतिविधियों के अवसर तथा रोजगार के अनेकों रास्ते खोल दिए। सेवाओं और वस्तुओं के परस्पर आदान-प्रदान के साथ-साथ समृद्धि बढ़ती गई। लेकिन यह समृद्धि सभी लोगों तक समान रूप से नहीं पहुंच पाई । यह कुछ लोगों तक ही सीमित रही। हाशिए पर जीने वाले लोगों को इस समृद्धि का कोई लाभ न मिला,न ही उन्हें रोजगार के समान अवसर मिले। जिसका नतीजा यह हुआ कि भूमंडलीकरण ने जिस समृद्धि, विकास और सामाजिक न्याय का सपना दिखाया था वह पूरा न हो सका। इसका नतीजा यह हुआ कि वैश्विक स्तर पर फिर यह चर्चा शुरू हो गई कि भूमंडलीकरण में कहां कमियां हैं। जिसकी वजह से सभी लोगों के समान विकास और सभी लोगों को समान रूप से अवसर प्राप्त नहीं हो पा रहा है। ऐसे समय में दुनिया की निगाह गांधी जी के सर्वाेदय सिद्धांत की ओर गई। सर्वाेदय सिद्धांत ऐसी संजीवनी है जो सभी मनुष्यों के समग्र विकास की बात करता है। इसे इस तरह भी कह सकते हैं की अंतिम मनुष्य के संपूर्ण विकास की परिकल्पना पर आधारित है। जब तक समाज के अंतिम आदमी का संपूर्ण विकास नहीं हो जाता, तब तक संपूर्ण सामाजिक आर्थिक व्यवस्था न्याय पूर्ण एवं समानता परक नहीं मानी जा सकती।
कीवर्ड- समानता, सामाजिक न्याय, समान अवसर, भूमंडलीकरण, वैश्विक गांव, सर्वाेदय।
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