हरिऔध के साहित्य में सांस्कृतिक बोध का अनुशीलन

Authors

  • 1डॉ0 आशुतोष कुमार राय

Abstract

‘हरिऔध’ के साहित्य में सांस्कृतिक बोध का अध्ययन करने के लिए उनके चिन्तन धारा का आकलन आवश्यक है। संस्कृति सामाजिक जीवन की आन्तरिक मूल प्रवृत्तियों का ही सम्मिलित रूप है। संस्कृति बोध को प्राप्त करने के लिए जीवन के अन्तस्तल में प्रवेश करना पड़ता है। स्थूल के पीछे सूक्ष्म का जो सत्य, शिव और सुन्दर रूप छिपा है संस्कृति उसको पहचानने का प्रयत्न करती है।हरिऔध के साहित्य का सांस्कृतिक बोध बहुत समृद्ध है। विशेषकर ‘प्रिय-प्रवास’ महाकाव्य तो उनकी सांस्कृतिक चिन्तन धारा का आधार है। प्रिय-प्रवास में कृष्ण एवं राधा इसके प्रतीक हैं। आर्य संस्कृति के रक्षक के रूप में साहित्यकार ने उनको अभिव्यक्ति प्रदान की है। हरिऔध के सांस्कृतिक बोध को जानने के लिए संस्कृति के विविध क्षेत्रों यथाजीवन दर्शन, धार्मिक आदर्श, सामाजिक आदर्श, पारिवारिक आदर्श, धर्म, नीति, दर्शन, गौरव विश्वास और परंपराओं, राजनीतिक आदर्श तथा भौतिक जीवन के सम्यक् रूपों का अध्ययन करना आवश्यक हो जाता है जिससे उनके सांस्कृतिक बोध की समृद्धता का ज्ञान हो सके।‘प्रिय-प्रवास’ का सांस्कृतिक आधार विशुद्ध भारतीय है। किन्तु हमें यह देखना है कि उसके आदर्शों का प्रतिफलन कवि ने किस प्रकार किया है। सर्वप्रथम ‘प्रिय-प्रवास’ तथा अन्य ग्रन्थों में उनके जीवन का आदर्श क्या रहा है इस पर विचार करना है क्योंकि संस्कृति की मूल प्रेरणा इसी आदर्श में मिलती है।प्रिय प्रवास के श्री कृष्ण लोक भावना के आदर्श हैं वे अनाथों के दुःख का अनुभव कर पग-पग उनकी सहायता को तत्पर हैं। भयंकर परिस्थिति में भी जनसेवा के लिए कटिबद्ध रहते हुए दूसरों को भी जनसेवा के लिए प्रोत्साहित करते हैं। हरिऔध जी आदर्शवादी साहित्यकार थे। उनके अपने निश्चित आदर्श थे। ये आदर्श लोकमंगल की भावना से ओत-प्रोत थे। लोकमंगल की भावना ही उनके साहित्य की कसौटी है तथा उनके साहित्य में सांस्कृतिक बोध के परीक्षण का माध्यम है। यह लोकमंगल की भावना सभी स्तरों पर उत्तरोत्तर विकसित होती गई है।
संकेतशब्द- सांस्कृतिक बोध, लोकरंजन, लोकाराधन, लोकमंगल की साधनावस्था, लोकादर्श, जीवनादर्श।

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Published

05-11-2021

How to Cite

1.
1डॉ0 आशुतोष कुमार राय. हरिऔध के साहित्य में सांस्कृतिक बोध का अनुशीलन. IJARMS [Internet]. 2021 Nov. 5 [cited 2025 Apr. 29];3(2):63-7. Available from: https://journal.ijarms.org/index.php/ijarms/article/view/77

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