घरेलू हिंसा में पारिवारिक अदालतों की भूमिका
Abstract
भारत विविधताओं से सम्पन्न देश है, यह वह देश है जहाँ सर्वप्रथम भारत भूमिखण्ड को एक माँ का दर्जा दिया गया है और इसी सभ्यता के प्राचीन ग्रंथो में उल्लेखित किया गया है “यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमंते तत्र देवता” अर्थात् जहाँ पर नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता वास करते हैं। परन्तु समय हमेशा गतिमान है और समय के साथ-साथ सभ्यता अपना स्वरूप बदलती रहती हैं। आधुनिक समय में जिसे हम आधुनिक इतिहास का काल 1857 ई० से मानते हैं। स्त्रियों की दशा अत्यन्त दयनीय रही और उनकी सामाजिक स्थिति में गिरावट का संकेत देती है, जिसने हमारे देश की सभ्यता व संस्कृति पर गहरा प्रभाव डाला। भारत एक विविधताओं से भरा देश है परन्तु देश में महिलाओं के साथ लगातार घरेलू और बाहरी हिंसा का बढ़ता ग्राफ इस खतरनाक सीमा तक पहुँच गया हो जिससे सामाजिक ताने-बाने को खतरा उत्पन्न हो गया, जबकि देश की राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष समेत तमाम महत्वपूर्ण पदों पर महिलाएँ हैं और रह चुकी हैं। वहाँ समाज की सभी वर्ग की महिलाओं के साथ शारीरिक मानसिक लैंगिक हिंसा व भेद-भाव ने हमें सोचने पर विवश किया है। एक सर्वे में यह तथ्य सामने आया कि भारत में लगभग 65 से 70 प्रतिशत महिलाएं किसी न किसी रूप से घरेलू हिंसा का शिकार है। क्योंकि आज भी भारतीय समाज एक पितृ सत्तात्मक समाज है, जिसमें समाज, परिवार या घर से जुड़े फैसलों को लेने का अधिकार पुरुष का ही होता है महिलाओं को ना के बराबर फैसला लेने में शामिल किया जाता है। भारतीय समाज की जड़ो में व्याप्त इस रूढिवादिता को समाप्त करना और समाज को संर्कीण दायरे से बाहर ला के एक प्रगतिशील समाज के रूप में स्थापित करना ही हमारा उद्देश्य होना चाहिए।
मुख्य शब्द- भारतीय समाज, गरिमा, घरेलू हिंसा, पारिवारिक अदालतें
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