शंकराचार्य के दार्शनिक तथा शैक्षिक विचारों का अध्ययन
Abstract
आज जब हम वेदान्त दर्शन पर विचार करते हैं तो हमारा तात्पर्य मुख्य रूप से शंकराचार्य के अद्वैत वेदान्त से ही होता है। भारतीय दर्शन में अद्वैतवाद का नाम आते ही शंकराचार्य का नाम जिहवापटल पर दौड़ जाता है। वेदान्त दर्शन की समस्त शाखा एवं उपशाखाओं में सर्वाधिक महत्व शंकराचार्य के अद्वैत वेदान्त का ही है।
शंकर का वेदान्त भारतीय चिन्तन धारा का चरमोत्कर्ष है। आज भारत में जितने भी दर्शन एवं धर्म मानव जीवन में उतरे हैं उन पर वेदान्त व्याख्याकारों में शंकराचार्य का नाम अग्रगण्य है। उन्होंने प्रस्थानत्रयी की बौद्धिक एवं दार्शनिक व्याख्या की है। शंकराचार्य के अद्वैत वेदान्त का सारा श्लोकार्य में इस पकार व्यक्त किया गया है ‘‘ब्रहा ही सत्य है, जगत मिथ्या है और जीव ब्रह्म ही है, उससे मित्र नहीं’’ शंकराचार्य के अद्वैत वाद का सकारात्मक प्रभाव भारतीय संस्कृति पर पड़ा हैं। संपूर्ण ब्रह्माण्ड की एकता और अनेकता का ज्ञान कराकर उन्होंने हमें अपनी अनन्त शक्ति में परिचित कराया है।
इस अनन्त शक्ति की अनुभ्ूाति हेतु जिस साधन मार्ग की चर्चा शंकराचार्य ने की है, उसके लिये न केवल भारत अपितु सारा संसार उनका चिरऋणी है। वास्तव में शंकराचार्य का दर्शन समस्त धर्म एवं दर्शनों का मूल हैं, उसे यदि सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक दर्शन कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। आज समाज जिस वर्गहीन, धर्मनिरक्षेप समाजवादी व्यवस्था पर विचार करता है वह शंकराचार्य के दार्शनिक तथा शैक्षिक विचारों की अभेद दृष्टि के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
मुख्य शब्दावली- तत्व-मीमांसा, ज्ञान-मीमंासा, आधार मीमंासा, पारर्मािर्थक सत्ता।
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