मानवाधिकार एवं भारतीय दलितः एक यथार्थ अवलोकन

Authors

  • डॉ0 लक्ष्मीना भारती

Abstract

विश्व के लगभग सभी समाजों में मानवाधिकारों की संकल्पना मानव उत्पत्ति के साथ ही विद्यमान रही है। चाहे यूनान की बात करें या भारतीय समाज की सबने अपने अपने सामाजिक परिवेश के अनुरूप मानव अधिकारों की संकल्पना रखी। भारत में भी प्राचीन राजनीतिक चिंतकों ने सामाजिक न्याय की अवधारणा पर बल दिया और देश की आजादी के बाद इसी मूल भावना को ध्यान में रखते हुए समाज के हर वर्ग, धर्म, जाति, सम्प्रदाय के लोगों को सामाजिक-आर्थिक न्याय देने के लिए मानवाधिकारों की संकल्पना की गई जिसको यथार्थ रूप देने हेतु भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार एवं राज्य के नीति निदेशक तत्वों को शामिल किया गया और इसके द्वारा एक ऐसे भारतीय समाज की नींव रखने का प्रयास किया गया जिसमें सभी को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक न्याय मिल सके। इसके लिए संविधान में दलितोत्थान के लिए भी विशेष प्रावधान किया गया और संविधान में लिखित रूप में उनके मानवाधिकारों को स्थान दिया गया। जिससे उनके हक सुरक्षित हो सकें। किन्तु व्यावहारिकता के धरातल पर संविधान सभा के निर्माताओं का सपना अभी भी साकार रूप नहीं ले पाया है। आज भी दलित वर्ग के लोगों का हक पूरी तरह सुरक्षित नहीं हो पाया है। आज भी उन्हें तमाम सामाजिक एवं मानसिक प्रताड़नाओं से गुजरना पड़ता है जिसको दूर किये बिना एक सशक्त भारत राष्ट्र की परिकल्पना को साकार रूप नहीं दिया जा सकता है। अतः आवश्यकता है उन सभी कानूनी प्रावधानों को ठीक ढ़ग से क्रियान्वयन करने की एवं समाज की मानसिक सोच बदलने की ताकि दलित समुदाय को समाज में वह स्थान और मानव गरिमा मिल सके जिसके वे वास्तविक हकदार हैं। इसके लिए सरकार के साथ-साथ हम सबको मिलकर प्रयास करना होगा तभी एक वसुधैव कुटुम्बकम रूपी भारत की संकल्पना साकार हो सकेगी।
मुख्य शब्द- दलितोत्थान, संवैधानिक प्रावधान, क्रियान्वयन, वसुधैव कुटुम्बकम।

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Published

31-01-2023

How to Cite

1.
डॉ0 लक्ष्मीना भारती. मानवाधिकार एवं भारतीय दलितः एक यथार्थ अवलोकन. IJARMS [Internet]. 2023 Jan. 31 [cited 2025 Mar. 12];6(1):42-6. Available from: https://journal.ijarms.org/index.php/ijarms/article/view/444

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