कबीर के काव्य में स्त्री: एक नई दृष्टि
Abstract
कबीर वैदिक परम्परा के नहीं, आजीवक परम्परा के कवि हैं। कबीर के काव्य को प्रक्षप्ति करने के कारण उनकी विचारधारा भी प्रक्षप्ति हो गई है। दूसरे कबीर की कविता के प्रक्षप्ति करने से योगियों, सन्यासियों और वैरागियों का स्त्री-विरोधी चिन्तन भी उसमें प्रविष्ट हो गया है अगर कबीर की स्वतंत्र विचारधारा के आधार पर उनकी कविता का स्वतंत्र पीठ तैयार किया जाय तो कबीर के स्त्री-चिन्तन की स्वतंत्र और मौलिक जमीन स्पष्ट हो जायेगी। तब स्पष्ट हो जाएगा। कि कबीर समूची स्त्री जाति या स्त्री मात्र के विरोधी नहीं बल्कि कुलटा, दुराचारणी या व्यभिचाणी स्त्री के विरोधी है तथा पवित्रता और सदाचारिणी स्त्री के प्रशंसक है। कबीर जार पुरूष के भी विरूद्ध है।
बीच शब्द-किंवदन्ती, एतिहासिक, पौराणिक, मध्यकालीनता, औपनिवेशिक संदर्भ, समानान्तर, विवेकहीनता, व्यक्तिगत मुक्ति, पारिवारिक मुक्ति।
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