हिन्दी रचनाकारों की प्रासंगिकता
Abstract
पूर्ववर्ती रचनाकारों (विशेषकर मध्यकालीन) की, विचार और कला के स्तर पर, पहचान के लिए, आठवाँ दशक एक महत्वपूर्ण कालखण्ड कहा जा सकता है। इसी दशक में हिन्दी के तीन स्तम्भ रचनाकारों- तुलसी, सूर और प्रेमचन्द की शताब्दियां मनाई गई, उनकी कृतियाँ और उनमें निहित रचनात्मक मूल्यों पर खुलकर बहसें हुई, लेख लिखे गयें, और अव्यवस्थित आलोचना ग्रन्थों का, कम ही सही, पर ठोस और सार्थक ढंग से प्रकाशन निरन्तर जारी है।
हिन्दी आलोचना के इस दौर में पूर्ववर्ती रचनाकारों पर विचारों की अविच्छिन्न धारा को रेखांकित किया जा सकता है। बहुत से मुद्दे उठाये गये, अन्तर्विरोध और मूल्यांकन के वैचित्य की विविधता भी देखने को मिली, परम्परा को खारिज करने या परम्परा के भीतर जगह बनाने की अनेक चेष्टाएँ हुई, और कुल मिलाकर तलाश की टकराहट, परम्परा और आधुनिकता का जटिल किन्तु सार्थक संघर्ष, इस दौर में सामने आया।
बीज शब्द - परम्परा, और, रचनाकारों, समकालीनवोध, मूल्यांकन, हिन्दी आलोचना, आलोचकों, रचना मध्यकालीन पुनर्मूल्यांकन।
Additional Files
Published
How to Cite
Issue
Section
License
Copyright (c) 2025 www.ijarms.org

This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License.
*WWW.IJARMS.ORG