शिवप्रसाद सिंह के लक्ष्य केन्द्रित लेखन की सार्थकता

Authors

  • डॉ0 वाचस्पति

Abstract

साहित्य के प्रति लेखक के निजी दृष्टिकोण से सम्यक परिचय प्राप्त कर लेने से उसके साहित्य को समझने और उसके विवेचन में पर्याप्त सहायता मिलती है। अतः साहित्य और साहित्य के अनेक पहलुओं के संबंध में डॉ0 शिवप्रसाद सिंह के विचार को संक्षेप में जान लेना अप्रासंगिक और असंगत नहीं होगा।
साहित्य के संदर्भ में प्रतिभा और अभ्यास का प्रश्न बहुत पुराना है। साहित्यकार की साहित्यिक प्रतिभा जन्मजात होती है या मात्र लेखन का अभ्यास उसे इस योग्य बनाता है? इस विषय में शिवप्रसाद जी का कहना है कि प्रतिभा ही एक ऐसी शक्ति है जो किसी न किसी अनुपात में मनुष्य मात्र को उपलब्ध होती है। वह कुछ लोगों के भीतर बाह्य और आंतरिक परिस्थितियों और वातावरण के कारण अचानक प्रबद्ध और सक्रिय हो जाती है, परन्तु मात्र प्रतिभा ही साहित्य रचना के लिये पर्याप्त नहीं है, लेखन के लिये अनवरत श्रम की भी आवश्यकता है, तभी प्रतिभा की पूर्ण क्षमता का विकास हो सकता है। इनकी सम्मति में सफल लेखक बनने के लिये बार-बार अपने ही लिखे को पढ़ना चाहिए। रचना करते वक्त उसके प्रति जो मोह उपजता है उसे तोड़ते रहना चाहिए। राष्ट्र के उत्थान और पतन में साहित्य के योगदान पर उनके विचार अत्यन्त स्पष्ट हैं। साहित्य मरी कौमों को जिलाता है, समाज को पतित भी करता ही होगा, पर उनके अनुसार ये सब मुगालतें साहित्यकार बनाते है। साहित्यकार आम आदमी के साथ यदि खड़ा होकर उसकी जिन्दगी का सही साक्ष्य दे सके, उसकी रचनायें उसके परिवेश और समय का दस्तावेज बन सकें तो भी बहुत है। साहित्यकार की अपने समय और समाज के निर्माण में एक अहं भूमिका होती है। आधुनिक वैज्ञानिक युग में उसके सामने एक नयी चुनौती प्रस्तुत की है। अतः इस अभिव्यक्ति संकट के युग में एक नयी भूमिका और चुनौती को लेकर खतरनाक मोड़ से गुजरते हुए जनता का मार्गदर्शन करना पहले से काफी जटिल हो गया है।
keywords-  शिवप्रसाद सिंह, लक्ष्यकेन्द्रित लेखन, अभिव्यक्ति संकट, सार्थकता, साहित्यकार, समाज।

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Published

30-01-2020

How to Cite

1.
डॉ0 वाचस्पति. शिवप्रसाद सिंह के लक्ष्य केन्द्रित लेखन की सार्थकता. IJARMS [Internet]. 2020 Jan. 30 [cited 2025 Mar. 12];3(1):135-43. Available from: https://journal.ijarms.org/index.php/ijarms/article/view/246

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