हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में कथा आख्यायिका की परम्परा

Authors

  • डॉ0 मंजुला यादव

Abstract

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने उपन्यासों में प्रागैतिहासिक युग से लेकर मध्यकालीन सामाजिक, सांस्कृतिक युग का चित्रण किया है। इसकी सृष्टि के लिए उन्होंने लिखित व अलिखित दोनों सामग्रियों का प्रयोग किया है परन्तु उनकी दृष्टि इतिहास से अधिक लोक गाथाओं और लोक परम्पराओं पर है। मध्ययुगीन समाज में जो कुरीतियाँ व्याप्त थीं उनको ही लक्ष्य करके उपन्यासकार ने कहा है कि कभी भी मानव की सहजात प्रवृत्तियों को दबाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। हजारी प्रसाद द्विवेदी की औपन्यासिक रचना प्रक्रिया में इतिहास और कल्पना का जो मणि-कांचन योग उपस्थित हुआ है वह कथा-आख्यायिका के मिश्रित शिल्प एवं शैली का परिणाम है। इनमें ‘गप्प’ का ठेठ मिजाज ‘गल्प’ की साहित्यिक रचनाशीलता में ढलता हुआ दिखाई पड़ता है और ‘पुनर्नवा’ इसका सर्वोत्तम उदाहरण है।
मुख्य शब्द- कथा-आख्यायिका, लोकोन्मुख, इतिहास बोध, रूप विन्यास, उपजीव्य, चरितकाव्य, अलंकृत गद्यकाव्य, उच्छ्वास, कवित्वमय, इतिवृत्त, गवेषणा, वृहत्कथा, निष्प्राण, सन्निवेश, अनुवर्तक, उद्भावक, मणि-कांचन, गल्प।

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Published

30-09-2020

How to Cite

1.
डॉ0 मंजुला यादव. हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में कथा आख्यायिका की परम्परा. IJARMS [Internet]. 2020 Sep. 30 [cited 2024 Dec. 3];3(2):160-4. Available from: https://journal.ijarms.org/index.php/ijarms/article/view/346

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Articles