भारतीय संस्कृतिः सिद्धान्त और विकास
Abstract
संस्कृति किसी भी देश या राष्ट्र की जातीय अस्मिता की पहचान हुआ करती है इसलिए स्वाभाविक है कि उस राष्ट्र का गौरव और वैभवपूर्ण विकास उसकी अपनी सांस्कृतिक समृद्धि पर निर्भर करता है। आकस्मिक नहीं है कि आधुनिक राष्ट्रीय नवजागरण के दौरान अपनी जातीय अस्मिता की पहचान के निमित्त ही सांस्कृतिक परम्परा के मूल्यांकन-पुनर्मूल्यांकन का लम्बा दौर दिखायी देता है। उस समय प्रकाशित लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में संस्कृति सम्बन्धी लेखों की भरमार यों ही नहीं है। उस समय भाषा, साहित्य, कला मूल्य, संस्कृति और इतिहास सम्बन्धी अनेक सवाल उठ खड़े हुए थे और अपनी सांस्कृतिक विरासत की सही पहचान एक अनिवार्य आवश्यकता बन गयी थी। कारण यह है कि ब्रिटिश साम्राज्यवादी इतिहासकारों और चिन्तकों की साम्प्रदायिक संकीर्णता के चलते उनके द्वारा भारतीय संस्कृति और सभ्यता को दोयम दर्जे की सभ्यता के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा था। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने इतिहास लेखन में ब्रिटिश प्रशासन की ‘फूट डालो और राज करो’ की कुटिल नीति का ही अनुसरण किया है।
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